भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 11 जुलाई २०२२ को संसद भवन की छत पर अशोक स्तंभ का अनावरण किया। कांसे की धातु से बना यह स्तंभ करीब-करीब 11-14 फीट चौड़ा और 20 फीट ऊंचा वाला है । इसका वजन लगभग 9,500 किलो है। यह अशोक स्तंभ भी सारनाथ के अशोक स्तंभ की प्रतिकृति ही है जिसे मौर्य सम्राट अशोक ने बनवाया था। मूल अशोक स्तंभ की तरह ही संसद भवन पर स्थित अशोक स्तंभ में भी चार सिंह हैं और सभी की पीठ एक-दूसरे से जुड़ी हुई है। इन शेरों के चेहरे के हाओ-भाव और चेहरे की मुद्रा ही विवाद का विषय बनी हुई है।
इस बिवादित विषय पर आलोचकों का मानना है कि, संसद भवन की छत पर स्थापित किया गया ये अशोक स्तंभ के शेरों के मुँह ज्यादा खुले हुए एवं क्रूर और आक्रामक प्रतित होते हैं. जबकि मूल अशोक स्तंभ के शेरों के मुँह कम खुले हुए हैं। इनका मानना है कि, अशोक के काल में निर्मित अशोक स्तम्भों के शेर कुछ मोहक, राजसी वैभव, शांति और जिम्मेदारी के सन्दर्भ में दिखाई प्रतीक होते हैं. जबकि नए संसद भवन की छत पर स्थित शेर क्रूर और आक्रामक दिख रहे हैं।
दूसरे राजनीति विपक्षी दलों का पक्छ
इसके अलावा दूसरे विपक्षी दलों के राजनेताओं ने नए संसद भवन के इस अनावरण कार्यक्रम को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के द्वारा संपन्न किये जाने के सम्बंध में भी आपत्ति का जताई है। उनका मनना है कि, ये भारत वर्ष के ‘शक्तियों के विभाजन’ के सिद्धांत के विपरीत है। देश का प्रधानमंत्री कार्यपालिका का भाग होता है जबकि संसद विधायिका की प्रतीक होती है। अतः इस कार्यक्रम को लोकसभा के स्पीकर द्वारा संपादित किया जाना चाहिए था। बिवाद और आपत्ति केवल इतनी ही नहीं है, इन सभी लोगो का मानना है की राजकीय कार्यक्रमों को इस तरह किसी धर्म बिशेष से जोड़ना भी ठीक नहीं है, किसी भी राजकीय कार्यकर्मो को धार्मिक पहचान से जोड़ना देश के लिए ठीक नहीं होता।
शिल्पकार के पक्ष को जानने का प्रयास करते हैं.
नये संसद भवन पर अस्थापित किया गया इस अशोक स्तंभ के शिल्पकार सुनील देवड़े इस सन्दर्भ में अपनी अलग राय रखते हैं। उनका कहना है कि, इस अशोक स्तंभ को बनाते समय उन्हें सरकार द्वारा किसी भी तरह की हिदायत नहीं दी गई थी। उन्हें ये प्रोजेक्ट ‘टाटा प्रोजेक्ट लिमिटेड’ कंपनी से मिला था। सुनील देवड़े के मुताबिक मूल मूर्ति की ऊँचाई कुल 3-3.5 फीट की ही है जबकि नई अशोक अस्तम्भ मूर्ति की ऊँचाई 21.3 फीट है। इस ऊँचाई में वृद्धि होने के कारण से शेरों की आकृति और उनके हाव-भाव में कुछ बदलाव देखने को मिलता है. उनके मुख की चौड़ाई थोड़ी ज्यादा है. इस वजह से ये शेर थोड़े अलग किस्म के दिख रहे हैं.
इस संदर्भ में सरकार के पक्ष को मानते हैं.
सरकार ने स्पष्ट किया है कि उन्होंने मूल राष्ट्रीय प्रतीक (अशोक अस्तम्भ ) में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं किया है, पहले के (अशोक अस्तम्भ) जो की 1.6 मीटर ऊंचा है, जबकि नये संसद भवन के ऊपर बनवाए गये अशोक स्तंभ का सांचा, मूल स्तंभ (पहले के अशोक अस्तम्भ) के मुकाबले लगभग 4 गुना अधिक उसकी उचाई और चोराई है। इसलिए दोनों स्तंभों के शेर भिन्न दिखाई पड़ते हैं।
ऐतिहासिक महत्व क्या है.
अशोक स्तंभ के शेरों की देहबोली से संबंधित वर्तमान विवाद से परे अगर अशोक स्तंभ के अतीत पर ध्यान दें तो यह एक समृद्ध भारतीय विरासत है। यही कारण है कि 26 जनवरी 1950 के दिन इसे राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में स्वीकृत किया गया था।
कलिंग युद्ध के बाद जब सम्राट अशोक का ह्रदय परिवर्तन हुआ तब वह बौद्ध धर्म स्वीकारते हुए बौद्ध धर्म के अनुयायी बने और बौद्ध धर्म प्रचार-प्रसार हेतु वह भारत देश के विभिन्न स्थानों पर अशोक स्तम्भों का निर्माण करने लगे थे। यह मथुरा और चुनार के बलुआ पत्थरों से निर्मित ये एकाश्म स्तम्भ है। इन स्तम्भों के शीर्ष पर चारों दिशाओं में गर्जना करते हुए 4 शेर को दिखाया गया हैं। इन शेरों के नीचे में एक साँड़ और एक घोड़े की आकृति भी दिखाई गयी है। इन आकृतियों के बीच में एक चक्र है जो चक्र हमारे राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे में भी शामिल किया गया है। इसके साथ ही इस स्तंभ के नीचे सत्यमेव जयते अंकित किया गया है, जिसका अर्थ है ‘सत्य की ही विजय होती है’। इस प्रकार अशोक स्तंभ भारतीय राष्ट्रीय चेतना का एक प्रतीक बना है।
कानूनी दृष्टिकोण क्या है ?
अशोक स्तंभ एक ऐतिहासिक विरासत है तो वही राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में ये हमारे भारत वर्ष का एक संवैधानिक महत्त्व भी रखता है. इसलिये अशोक स्तंभ के इस्तेमाल के संबंध में कुछ नियम-कानून भी बनाये गए है। इसका उपयोग केवल संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति ही कर सकते हैं. उदाहरण के लिए ‘राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री और उच्च प्रशासनिक अधिकारी”. । इसके अलावा किसी भी निजी संगठन/व्यक्ति या संस्था के द्वारा राष्ट्रीय चिन्ह यानी अशोक असतंभ का उपयोग वर्जित है.। राष्ट्रीय चिन्ह (अशोक अस्तम्भ ) के दुरुपयोग को रोकने के लिए एक कानून ‘राष्ट्रीय चिन्ह (दुरुपयोग की रोकथाम) अधिनियम, 2005’ को भी लागू किया गया है।